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लीलो: एक परजीव्याभ संभिरका

 

लीलो: एक परजीव्याभ संभिरका

लीलो एक परजीव्याभ संभिरका है जो अपने बच्चे पराये पेट पलवाती हैं। एकांकी जीवन जीने वाली इन संभिरकाओं के शारीर का रंग काला होता है पर इनकी झिलीदार पंखें नीली धात मारती हैं। इनके शारीर की लम्बाई लगभग 2-3 सै.मी. होती है। इनका वंशक्रम Hymenoptera व् कुणबा Scoliidae है। प्रौढ़ लीलो आमतौर पर फूलों पर ही दिखाई देती हैं। इनको अपना गुज़र-बसर करने के लिए मधुरस की आवशयक्ता होती जो इन्हें फूलों में मिलता है। पर इनके बच्चों को तो अपनी शारीरिक वृद्धि के लिए केवल जिंदा कीटों का मांस ही चाहिए। ये ततैया अपने बच्चों के लिये ना तो किसी किस्म छत्ता बनाती हैं और ना ही उनके लिये कीट ढूंढ़ कर लाती हैं। इस काम के लिए तो इन्होने एक नया ही तरीका अपना रखा है। इस कीट की मादा ततैया जमीन के साथ-साथ मंडराते हुए ऐसे कीटों की तलाश में रहती है जिनके पेटों में अपने बच्चे पलवा सके। और ये मिलते हैं इन्हे खाद , गोबर व् लकड़ी के ढेरों के पास। जी, ये होते हैं भान्त-भान्त के गुबरैलों के गर्ब जो जमीन के अंदर रहते हुए अपना गुज़ारा करते हैं। गुबरैलों के गरबों तक इन्हें या तो जमीन खोदनी पड़ती है या फिर गरबों द्वारा निर्मित सुरंगों का सहारा लेना पड़ता है। मन माफिक गर्ब मिलते ही ये ततैया उसको डंक मार कर लुंज कर देती है। फिर इसके पास या उपर अपना एक अंडा रख देती है। इस अंडे से निकला बच्चा इस लुंज गर्ब को ही खा पीकर बड़ा होता है। इस नवजात को मालूम होता है कि लुंज गर्ब का कौनसा हिस्सा पहले खाना होता है ताकि भोजन के रुप में उपलब्ध इस गर्ब को गलने-सड़ने से बचाया जा सके। एक मादा लीलो अपने जीवनकाल में सैंकड़ो अंडे देती है। इसका मतलब इससे भी ज्यादा सफ़ेद लटों का खात्मा। गजब का प्राकृतिक कीट नियंत्रण। पर सब कुछ पर्दे के पीछे, जमीन के अंदर होता है। हमे नजर नही आता। पर इससे क्या फर्क पड़ता है। जमीनी हकीक़त तो अपनी जगह हकीकत ही रहेगी। "कीट नियंत्रनाय कीटा हि: अस्त्रामोगा11"  अगर किसान इन कीटों को पहचानने लग जाये, समझने लग जाये व् परखने लग जाये तो निश्चित तौर पर हमारे खाने में, पानी में तथा हवा में जहर कम होगा। कीट नियंत्रण में किसानों के लगने वाले समय, पैसे व् मेहनत की बचत होगी।

 

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