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ಎಳ್ಳು
ಈ ಬೆಳೆಯು ಉತ್ತರ ಕರ್ನಾಟಕದ ಜಿಲ್ಲೆಗಳಾದ ಬೀದರ, ಕಲಬುರ್ಗಿ, ರಾಯಚೂರು, ಕೊಪ್ಪಳ, ಬಳ್ಳಾರಿ ಬಾಲಕೋಟ, ಗದಗ, ಹಾವೇರಿ ಹಾಗೂ ಧಾರವಾಡಗಳಲ್ಲಿ ಚೆನ್ನಾಗಿ ನೀರು ಬಸಿದು ಹೋಗುವ ಮರಳು ಮಿಶ್ರಿತ ಕೆಂಪು ಗೋಡು ಅಥವಾ ಕಪ್ಪು ಮಣ್ಣಿನ ಪ್ರದೇಶಗಳಲ್ಲಿ ಬೆಳೆಯಬಹುದು. ಈ ಬೆಳೆಗೆ ನೀರು ನಿಲ್ಲುವ ಜೌಳು ಮಣ್ಣಿನ ಪ್ರದೇಶ ಸೂಕ್ತವಲ್ಲ.
ಸೂಚನೆ
ಮುಂಗಾರು ಹಂಗಾಮಿನಲ್ಲಿ ಜೂನ್-ಜುಲೈ ತಿಂಗಳುಗಳು ಬಿತ್ತನೆಗೆ ಉತ್ತಮ. ನೀರಾವರಿಯಲ್ಲಿ ತುಂಗಭದ್ರಾ ಹಾಗೂ ಕೃಷ್ಣಾ ಮೇಲ್ದಂಡೆ ಯೋಜನೆಯ ಅಚ್ಚುಕಟ್ಟು ಪ್ರದೇಶಗಳಲ್ಲಿ ಮುಂಗಾರು ಭತ್ತದ ಬೆಳೆಯ ನಂತರ ಅಂದರೆ ನವೆಂಬರ್--- ಡಿಸೆಂಬರ್ ತಿಂಗಳುಗಳಲ್ಲಿ ಭೂಮಿಯಲ್ಲಿ ಉಳಿದ ತೇವಾಂಶದಲ್ಲಿ ಎಳ್ಳು ಬೆಳೆಯುವ್ರದು ಲಾಭದಾಯಕ ಎಂದು ಕಂಡುಬಂದಿದೆ.
ತಳಿಗಳ ವಿವರ
1,2,3 ಮತ್ತು 8 ಮಳೆಯಾಸ್ರಿತ
100-105/ ಬಿಳಿ ಕಾಳಿನೊಂದಿಗೆ ಹೆಚ್ಚಿನ ಇಳುವರಿ ಕೊಡುತ್ತದೆ
-ಸದರ-
100/ ನಂಜು ರೋಗ ನಿರೋಧಕ ಶಕ್ತಿಯುಳ್ಳ ಬಿಳಿ ಕಾಳಿನೊಂದಿಗೆ ಹೆಚ್ಚಿನ ಇಳುವರಿ ಕೊಡುತ್ತದೆ.
1 ಮತ್ತು 2
90/ ದಿನಗಳು ಬಿಳಿ ಕಾಳು ಹೊಂದಿದ್ದು, ಹೆಚ್ಚಿನ ಇಳುವರಿ ಕೊಡುತ್ತದೆ.
ಬಿತ್ತನೆಗೆ ಬೇಕಾಗುವ ಬೇಸಾಯಕ್ಕೆ ಸಾಮಗ್ರಿಗಳು (ಪ್ರತಿ ಹೆಕ್ಟೇರಿಗೆ)
ಬಿತ್ತನೆ ಬೀಜ
ಕುರಿಗೆ ಬಿತ್ತನೆ 2.5 ಕಿ.ಗ್ರಾಂ
ಬೀಜ ಚೆಲ್ಲುವ ವಿಧಾನ 4.0 – 5.0 ಕಿ.ಗ್ರಾಂ
ಕೊಟ್ಟಿಗೆ ಗೊಬ್ಬರ ಅಥವಾ ಕಾಂಪೋಸ್ಟ್ 5.0 ಟನ್
ರಾಸಾಯನಿಕ ಗೊಬ್ಬರಗಳು
ಸಾರಜನಕ 40-50 ಕಿ.ಗ್ರಾಂರಂಜಕ 25 ಕಿ.ಗ್ರಾಂಪೋಟ್ಯಾಷ್ 25 ಕಿ.ಗ್ರಾಂಥೈರಾಮ್/ಕ್ಯಾಪ್ಟಾನ್/ಕಾರ್ಬೆಂಡೈಜಿಮ್ 8-15 ಗ್ರಾಂ(ಬೀಜೋಪಚಾರಕ್ಕಾಗಿ)
ಅಂತರ ಬೇಸಾಯ ಹಾಗೂ ಕಳೆ ನಿಯಂತ್ರಣ
ಕಳೆಗಳು ಹೆಚ್ಚು ಇದ್ದಲ್ಲಿ ಎಳ್ಳು ಸಸಿಗಳು ಬಲಿಷ್ಟವಾಗಿ ಬೆಳೆಯಲಾರವ್ರ. ಆದ್ದರಿಂದ ಬೀಜ ಬಿತ್ತಿದ ದಿನ ಅಥವಾ ಮರುದಿನ ಪ್ರತಿ ಹೆಕ್ಟೇರಿಗೆ ಅಲಾಕ್ಲೊರ್ 1.5 ಲೀ. ಕಳೆನಾಶಕ ಸಿಂಪರಣೆ ಮಾಡಬೇಕು. ಬಿತ್ತಿದ 30 ದಿವಸಗಳಲ್ಲಿ ಒಮ್ಮೆ ಕೈಗಳೆ ಅವಶ್ಯ. ಬೀಜ ಮೊಳಕೆಯೊಡೆದ 15 ದಿವಸಗಳೊಳಗೆ ಪ್ರತಿ ಸಾಲಿನಲ್ಲಿ ಸಸಿಯಿಂದ ಸಸಿಗೆ 15 ಸೆಂ.ಮೀ. ಅಂತರದಲ್ಲಿ ಸಸಿಗಳನ್ನು ಉಳಿಸಿ ಕೈಗಳೆಯನ್ನು ಕೈಗೊಳ್ಳಬೇಕು. ಬಿತ್ತಿದ ನಂತರ 30 ಹಾಗೂ 45 ದಿವಸಗಳಲ್ಲಿ ಎರಡು ಬಾರಿ ಎಡಯನ್ನು ಹೊಡೆಯುವದರಿಂದ ಕಳೆ ನಿಯಂತ್ತಿಸುವ್ರದಲ್ಲದೇ, ಸಾಲುಗಳಲ್ಲಿ ಎರಕಲು ಬಿಡದಂತೆ ನಿರ್ವಹಿಸಿದಂತಾಗುತ್ತದೆ
ಕೋಷ್ಟಕ: ಎಳ್ಳು ಬೆಳೆಯಲ್ಲಿ ಸಸ್ಯ ಸಂರಕ್ಷಣಾ ಕ್ರಮಗಳು
ಬಿತ್ತನೆ ಬೀಜವನ್ನು 2 ಗ್ರಾಂ ಕ್ಯಾಪ್ಟಾನ್ 80 ಡಬ್ಲೂ.ಪಿ ಅಥವಾ ಥೈರಾಮ್ 75 ಡಬ್ಲೂ.ಪಿ ಅಥವಾ 4 ಗ್ರಾಂ ಟ್ರೈಕೋಡರ್ಮಾದಿಂದ ಉಪಚರಿಸಿ ಬಿತ್ತನೆಗೆ ಉಪಯೋಗಿಸಬೇಕು.
ಅಲ್ಲದೇ ದೊಡ್ಡ ಹುಳುಗಳನ್ನು ಕೈಯಿಂದ ಆರಿಸಿ ನಾಶಪಡಿಸಬೇಕು.
ಕೊಯ್ಲು
ಗಿಡದ ಕಾಂಡ ಮತ್ತು ಎಲೆಗಳು ಹ ಳದಿ ಬಣ್ಣಕ್ಕೆ ತಿರುಗಿದೊಡನೆಯೇ ಪೂರ್ತಿ ಗಿಡವನ್ನು ನೆಲದ ಮಟ್ಟಕ್ಕೆ ಕೊಯ್ಲು ಮಾಡಿ ಅಂದಾಜು ಹತ್ತು ಗಿಡಗಳನ್ನು ಕೂಡಿಸಿ ಕಟ್ಟು ಹಾಕಿ ಅವೆಲ್ಲವ್ರಗಳನ್ನು ನೆಲದ ಮೇಲೆ/ಗೊಬ್ಬರದ ಹಾಳೆ/ಕಣದಲ್ಲಿ ಒಂದು ಕಡೆ ರಾಶಿ ಹಾಕಿ, ನಂತರ ಒಣಗಿಸಿ ಕಾಳನ್ನು ಬೇರ್ಪಡಿಸಬೇಕು.
ಇಳುವರಿ
6-8
प्रदेश में तिल की खेती मुख्यतः बुन्देलखण्ड की राकड़ भूमि में तथा मिर्जापुर, सोनभद्र, कानपुर, इलाहाबाद, फतेहपुर, आगरा, मैनपुरी आदि जनपदों में शुद्घ एवं मिश्रित रूप से की जाती है। मैदानी क्षेत्रों में अधिकतर इसे ज्वार बाजरा तथा अरहर के साथ ही बोते है।
प्रजातियां विशेषता पकने की अवधि( दिनो में) तेल प्रतिशत उपज (कु./हे.) उपयुक्त क्षेत्र टा-४ फलिया एकल सन्मुखी बीज सफेद ९०-१०० ४०-४२ ६-७ मैदानी क्षेत्र टा-१२ फलिया एकल , असन्मुखी बीज सफेद ८५-९० ४०-४५ ५-६ पश्चिम क्षेत्र टा-१३ फलिया एकल ,असन्मुखी बीज सफेद ९०-९५ ४०-४५ ६-७ बुन्देलखण्ड टा-७८ फलिया एकल , सन्मुखी ८०-८५ ४५-४८ ६-८ सम्पूण उ.प्र. शेखर फलिया एकल , सन्मुखी ८०-८५ ४५-४८ ६-८ सम्पूण उ.प्र प्रगति फलिया एकल. असन्मुखी ८०-८५ ४५-४८ ७-९ सम्पूण उ.प्र. तरुण फलिया एकल, असन्मुखी ८०-८५ ५०-५२ ८-९ सम्पूण उ.प्र.
तेल प्रतिशत
उपयुक्त क्षेत्र
४०-४५
बुन्देलखण्ड
सम्पूण उ.प्र.
बीज दर तथा शोधन: एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए ३ से ४ किग्रा. बीज का प्रयोग करे। बीज जनित रोगो से बचाव हेतु २५० ग्राम थीरम या कैप्टान प्रति किग्रा. बीज की दर से शोधन हेतु प्रयोग करे। बुवाई का समय एवं विधि: तिल की बुवाई का उचित समय जुलाई का दूसरा पखवारा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इससे पूर्व बुवाई करने से फाइलोडी रोग लगने का भय रहता है। इसकी बुवाई हल के पीद्दे लाइनों मे ३० से ४५ से.मी. की दूरी पर करे। बीज को कम गहराई पर बोये।
एक हेक्टेयर क्षेत्र के लिए ३ से ४ किग्रा. बीज का प्रयोग करे। बीज जनित रोगो से बचाव हेतु २५० ग्राम थीरम या कैप्टान प्रति किग्रा. बीज की दर से शोधन हेतु प्रयोग करे।
तिल की बुवाई का उचित समय जुलाई का दूसरा पखवारा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इससे पूर्व बुवाई करने से फाइलोडी रोग लगने का भय रहता है। इसकी बुवाई हल के पीद्दे लाइनों मे ३० से ४५ से.मी. की दूरी पर करे। बीज को कम गहराई पर बोये।
उर्वरको का प्रयोग भूमि परीक्षण के आधार पर करे। यदि परीक्षण न कराया गया हो तो ३० क्रि.ग्रा. नत्रजन तथा १५ किग्रा. फास्फोरस प्रति हे. की दर से प्रयोग करे। राकड़ तथा भूड़ भूमि में १५ किग्रा. पोटाश प्रति हे. की भी प्रयोग करे। नत्रजन की आधी मात्रा एंव फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय डे्रसिंग के रूप में तथा नत्रजन की शेष आधी मात्रा प्रथम निराई-गुडाई के समय प्रयोग करें।
जब पौधे में ५० से ६० प्रतिशत तक फली लग जाय और उस समय वर्षा न होतो एक सिचाई करना आवश्यक है।
प्रथम निराई गुडाई बुवाई के १५ से २० दिनों के बाद दूसरी निराई गुडाई ३० से ३५ दिनों बाद करें। निराई गुडाई करते समय पौधे की थिनिंग (विरलीकरण) करके उनकी आपस की दूरी १० से १२ से मी. कर ले। एलाक्लोर ५० ई. सी. १.२५ लीटर प्रति हे. बुवाई के ३ दिन के अन्दर प्रयोग करने से खरपतवारों का नियंत्रण हो जाता है ।
तिल की फाइलोड: पहचान: यह रोग माइकोप्लाज्मा द्वारा होता है। इस रोग में पौधों का पुष्प विन्यास पत्तियों के विकृत रूप मे बदल कर गुच्द्देदार हो जाता हैं इस रोग का वाहक कीट फुदका है। उपचार: १. तिल की बुवाई समय से पहले न की जाय।२. बुवाई के समय कूंड में फोरेट १० जी. १५ किग्रा. प्रति हे. की दर से प्रयोग किया जाय।३. मिथाइल-ओ डिमोटान (२५ ई.सी.) १ लीटर प्रति हे. की दर से छिड़काव करना चाहिये। फाइटोटथोरा झुलसा: पहचान: इस रोग में पौधों के कोमल भाग व पत्तियां झुलसा जाती है। उपचार: इसकी रोकथाम हेतु ३ किग्रा. कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव दो तीन बार करना चाहिये।
यह रोग माइकोप्लाज्मा द्वारा होता है। इस रोग में पौधों का पुष्प विन्यास पत्तियों के विकृत रूप मे बदल कर गुच्द्देदार हो जाता हैं इस रोग का वाहक कीट फुदका है।
१. तिल की बुवाई समय से पहले न की जाय।२. बुवाई के समय कूंड में फोरेट १० जी. १५ किग्रा. प्रति हे. की दर से प्रयोग किया जाय।३. मिथाइल-ओ डिमोटान (२५ ई.सी.) १ लीटर प्रति हे. की दर से छिड़काव करना चाहिये।
इस रोग में पौधों के कोमल भाग व पत्तियां झुलसा जाती है।
इसकी रोकथाम हेतु ३ किग्रा. कापर आक्सीक्लोराइड का छिड़काव दो तीन बार करना चाहिये।
पत्ती व फल की सूड़ी: पहचान: इनकी सुड़ियाँ कोमल पत्तियों तथा फलियों को खाती है एवं इन्हे जाला बनाकर बांध देती है। उपचार: इस कीट की रोकथाम के लिए निम्न मे से कोई एक कीटनाशक का बुरकाव अथवा द्दिडकाव करना चाहिये। १. क्यूनालफास २५ ई.सी. १.५ लीटर प्रति हे. या२. मिथाइल पैराथियान २ प्रतिशत चूर्ण कि.ग्रा./हे.३. इन्डोसल्फान (३५ ई.सी.) १.२५ लीटर प्रति हे.
इनकी सुड़ियाँ कोमल पत्तियों तथा फलियों को खाती है एवं इन्हे जाला बनाकर बांध देती है।
इस कीट की रोकथाम के लिए निम्न मे से कोई एक कीटनाशक का बुरकाव अथवा द्दिडकाव करना चाहिये।
१. क्यूनालफास २५ ई.सी. १.५ लीटर प्रति हे. या२. मिथाइल पैराथियान २ प्रतिशत चूर्ण कि.ग्रा./हे.३. इन्डोसल्फान (३५ ई.सी.) १.२५ लीटर प्रति हे.
मुख्य बिन्दु १. बुवाई १०-२० जुलाई तक अवश्य कर ली जायें।२. पानी के निकास की समुचित व्यवस्था करे।३. बुवाई के १५-२० दिन बाद विरलीकरण अवश्य करें।
१. बुवाई १०-२० जुलाई तक अवश्य कर ली जायें।२. पानी के निकास की समुचित व्यवस्था करे।३. बुवाई के १५-२० दिन बाद विरलीकरण अवश्य करें।
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Hemant Sharma
A User from Hanumangarh, Rajasthan,India
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